उत्तरकाशी: डुंडा के ऊनी कपड़ों की मांग कारगिल-लद्दाख तक, जाड़-भोटिया और किन्नौरी समाज का योगदान
उत्तराखंड के वीरपुर डुंडा क्षेत्र में जाड़-भोटिया और किन्नौरी समुदाय पारंपरिक ऊनी वस्त्र उद्योग से जुड़े हुए हैं। ये समुदाय भेड़ पालन करते हैं और उनकी ऊन से विभिन्न डिज़ाइन के ऊनी कपड़े तैयार करते हैं। सर्दियों के मौसम में इन कपड़ों की मांग काफी बढ़ जाती है। स्थानीय स्तर पर बने ऊनी वस्त्रों की मांग न केवल उत्तराखंड बल्कि जम्मू, कश्मीर, लद्दाख जैसे क्षेत्रों में भी है।
सर्दियों के दौरान, कोट, स्वेटर, मफलर, टोपी, और जुराब जैसे उत्पादों की अधिक मांग होती है। ऊनी वस्त्र उद्योग के चलते क्षेत्र के कई व्यवसायी 10 से 15 हजार रुपये प्रतिदिन तक कमा रहे हैं। यह उद्योग न केवल समुदाय के लिए रोजगार का बड़ा स्रोत है, बल्कि पारंपरिक हस्तशिल्प को भी संरक्षित कर रहा है।
निर्माण प्रक्रिया:
भेड़ से ऊन प्राप्त करने के लिए पहले बालों की कटाई की जाती है, फिर उसे धोकर धूप में सुखाया जाता है। इसके बाद छंटाई और कार्डिंग की प्रक्रिया होती है, जिससे ऊन के गोले तैयार किए जाते हैं। इसके बाद कताई और बुनाई कर ऊनी वस्त्र बनाए जाते हैं।
कीमतें (औसत):
– ऊनी कोट: ₹3,000 से ₹5,000
– शॉल: ₹1,200
– पंखी: ₹1,400
– मफलर: ₹500
– टोपी और जुराब: ₹150
– नेहरू जैकेट: ₹900
– स्वेटर: ₹1,200
– जैकेट (फुल): ₹700
– जैकेट (हॉफ): ₹1,200
ग्राहक अनुभव:
नालंदा वुलन समूह की अध्यक्ष के अनुसार, सर्दियों में यहां के कपड़े बेहद लोकप्रिय हैं। ऊन से चुभन की समस्या को दूर करने के लिए अब इनमें फर का इस्तेमाल किया जा रहा है, जिससे कपड़े अधिक आरामदायक और गर्म बन गए हैं। वीरपुर डुंडा में बने इन कपड़ों के ऑर्डर स्थानीय बाजारों के साथ ही मुन्सियारी, चमोली और लद्दाख जैसे दूरदराज के क्षेत्रों से भी प्राप्त हो रहे हैं।
इस पारंपरिक उद्योग ने न केवल आर्थिक समृद्धि लाई है, बल्कि हस्तनिर्मित ऊनी वस्त्रों को पहचान दिलाने में भी मदद की है।