अनुच्छेद 370 के हटने के बाद जम्मू-कश्मीर में पहली बार विधानसभा चुनाव हो रहे हैं। केंद्र शासित प्रदेश बनने के बाद, यह चुनाव लोगों के लिए विकास की नई संभावनाओं का संकेत है। इस बार चुनाव सिर्फ राजनीतिक बदलाव का नहीं, बल्कि विचारधाराओं के परिवर्तन का भी है।अतीत में, जमात-ए-इस्लामी जैसे संगठन चुनावों का बहिष्कार करते रहे हैं, लेकिन हाल के लोकसभा चुनावों में कई नेताओं ने मतदान किया, जो बदलाव की ओर इशारा करता है। इस चुनाव में मतदाता विकास के पक्ष में खड़े हो सकते हैं, क्योंकि वे पत्थरबाजी और अलगाववाद से थक चुके हैं।जम्मू-कश्मीर में सियासी समीकरण भी बदल रहे हैं। इंजीनियर रशीद जैसे नेता कश्मीर के मुद्दों को हल करने के लिए चुनावी मैदान में हैं। सोपोर, कुलगाम, शोपियां और पुलवामा में इन संगठनों की मजबूत उपस्थिति है।संसद हमले के दोषी अफजल गुरु के भाई एजाज अहमद गुरु भी चुनावी दौड़ में शामिल हैं। इसी तरह, मौलवी सरजन अहमद वागे, जो पहले विरोध रैलियों का चेहरा रहे हैं, अब पूर्व सीएम उमर अब्दुल्ला के खिलाफ चुनाव लड़ रहे हैं। 2014 के विधानसभा चुनाव में भी अलगाववादी समूहों ने बहिष्कार किया था, फिर भी मतदान प्रतिशत लगभग 66% रहा। अबकी बार, उम्मीद है कि मतदान प्रतिशत और भी बढ़ेगा, जो लोकतंत्र के प्रति बढ़ती जागरूकता का प्रतीक होगा।इस चुनाव के बाद, जम्मू-कश्मीर को अपनी पहली निर्वाचित सरकार मिलेगी, जो राज्य की सियासत में नए आयाम स्थापित कर सकती है। यह बदलाव न केवल लोकतंत्र के लिए, बल्कि जम्मू-कश्मीर के भविष्य के लिए भी महत्वपूर्ण है।डॉ. सुमन शुक्ला, कानपुर विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग के प्रोफेसर के अनुसार, यह चुनाव इस राज्य की दिशा तय करेगा और घाटी में लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत है।
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