उत्तराखंड राज्य ने अपने गठन के 24 वर्ष पूरे कर लिए हैं, लेकिन इन वर्षों में अपनी बोली-भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने के ठोस प्रयास नहीं किए गए हैं।
गैरसैंण में बनने वाले उत्तराखंड भाषा संस्थान के मुख्यालय के लिए देहरादून में भी भूमि नहीं मिल पा रही है। विभाग की निदेशक, स्वाति भदौरिया के अनुसार, सहस्त्रधारा रोड में करीब दो एकड़ भूमि चिन्हित की गई थी, परन्तु उस पर आपत्ति के चलते जिला प्रशासन को किसी अन्य स्थान पर जमीन देने का निर्देश दिया गया है।
उत्तराखंड की बोली-भाषा को बढ़ावा देने के उद्देश्य से 24 फरवरी 2009 को भाषा संस्थान की स्थापना हुई थी, लेकिन इसका मुख्यालय आज भी किराए के भवन में चल रहा है। 6 अक्टूबर 2020 को तत्कालीन मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने ग्रीष्मकालीन राजधानी गैरसैंण में संस्थान के मुख्यालय की स्थापना की घोषणा की थी। इसके लिए भूमि खरीदने हेतु 50 लाख की राशि भी निर्धारित की गई, परन्तु मुख्यालय का निर्माण नहीं हो सका। पूर्व मंत्री स्वामी यतीश्वरानंद इसे हरिद्वार में बनाना चाहते थे, जबकि वर्तमान मंत्री सुबोध उनियाल देहरादून में इसका मुख्यालय स्थापित करने की योजना बना रहे हैं। हाल में सहस्त्रधारा रोड पर चिन्हित भूमि पर आपत्ति के कारण अब इसमें बाधा उत्पन्न हो गई है।
उत्तराखंड भाषा संस्थान का मुख्यालय पहाड़ और मैदान की राजनीति में उलझा हुआ है। कुछ लोग इसे पहाड़ में बनाना चाहते हैं, उनका तर्क है कि गैरसैंण ग्रीष्मकालीन राजधानी घोषित की गई है, और वहां संस्थानों की स्थापना शुरू होनी चाहिए। दूसरी ओर, कुछ लोगों का कहना है कि पहाड़ में संस्थान की स्थापना उचित नहीं है, क्योंकि वहां इसे आवश्यक संसाधन और समर्थन नहीं मिल पाएगा।
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गढ़वाली और कुमाऊंनी भाषाओं में अनेक विश्वविद्यालयों में शोध कार्य हो चुके हैं, और इन भाषाओं का साहित्यिक योगदान महत्वपूर्ण रहा है। 1913 में गढ़वाली भाषा का पहला समाचार पत्र ‘गढ़वाली समाचार’ प्रकाशित हुआ था। इसके बावजूद, राज्य गठन के 24 वर्ष बाद भी उत्तराखंड की स्थानीय भाषाओं को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाए गए हैं।